•काश, कशक और कशिश•
बदलती चीजें मुझे अच्छी नहीं लगती हैं
और न ही बदलते लोग।
चीजों को मैं आसानी से छोड़ नहीं पाता,
कुछ न कुछ,
कहीं न कहीं,
मेरे अंदर बचा रह जाता है।
बदलता वक़्त भी
कई बार असहज कर देता है मुझे,
कहीं न कहीं
मैं उस पुराने वक़्त में रह जाता हूँ।
लोग आगे बढ़ जाते हैं,
नये वक़्त में,
नयी जगह पर,
नये लोगों के साथ,
लेकिन मैं कहीं न कहीं
वहीं रह जाता हूँ,
उसी वक़्त में,
उसी जगह पर,
उन्हीं लोगों का इंतजार करते हुए।
साल बदल रहा है,
नये लोग आयेंगे,
लेकिन मैं फिर वहीं
इंतजार करुंगा,
थोड़ा सा मैं रह जाऊंगा
इसी पुराने साल में,
तुम आना मेरा हाथ पकड़
मुझे ले चलने,
~ सौरभ शुक्ला
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