•साइकिल से गिर जाने का डर•

बचपन से ही ऐसे माहौल में रहा हूँ जहाँ पे मम्मी-पापा, दादा-दादी हर कदम से पहले समझाते की बेटा ध्यान से.....!!!!!
जब बचपन में साइकिल सीखना हुआ, तो इस बात से डर लगता था कि कहीं गिर न जाऊँ.....तब गिरने से बहुत डर लगता था, इस डर से इतना ध्यान से साइकिल चलाना सीखा की कभी गिरा नहीं साइकिल से, एक बार भी नहीं.....पहले तो भीड़ में साइकिल लेकर ही नहीं जाता था, वजह वही एक ही, डर.....!!!!!
इस डर से इतना डर लग गया कि वो गिर जाने का डर कभी अंदर से जा ही नहीं पाया.....बेशक मैं कभी साइकिल लेकर तो नहीं गिरा लेकिन उस न गिरने की वजह से गिर कर फिर उठ जाने की कला सीख नहीं पाया.....!!!!!

असल जिंदगी भी बिलकुल ऐसी ही है, 
गिरना भी बहुत ज़रूरी है कि पता हो कि फिर उठ जाना है, फिर उठ कर ठीक वैसे ही आगे बढ़ते रहना है.....बड़ी बात इसमें नहीं कि हम कभी गिरे नहीं, बड़ी बात इसमें है गिर कर उठ कर फिर चलने लगने में.....!!!!!

असल ज़िन्दगी में आज भी जब मेरे अन्दर गिर जाने का, कहीं पीछे रह जाने का डर आ जाता है तो इतना सावधान हो जाता हूँ कि ज़िन्दगी जीना ही बन्द कर देता हूँ, सारा ध्यान बस इस बात पर होता है कि गिरना नहीं है, पीछे नहीं रहना है.....कारण वही कि उस छोटी सी साइकिल से गिरने से अगर इतना न डरा होता तो आज असल ज़िन्दगी में भी गिर जाने से इतना तो नहीं ही डरता.....!!!!!

साइकिल से गिरने से खुद को भले ही बचा लें, लेकिन असल ज़िन्दगी इसके बिलकुल ही उलट है.....ज़िन्दगी ऐसा धोबी पछाड़ देकर पटकती है कि उठने का मौका तक ठीक से नहीं देती, 
उस वक्त आपके पीछे वो दोस्त भी शायद ही होगा जो साइकिल सीखते वक्त आपके पीछे से बोलता है कि तू जा मैं हूँ न! 
बचा तो वो तब भी नहीं पाता लेकिन एक भरोसा होता है जो हमें हिम्मत देता है......!!!!!
फिर अब वहाँ से हम कैसे उठ खड़े होते हैं, कैसे फिर ज़िन्दगी की आँख में आँख डालकर उससे मुकाबले को तैयार होते हैं सबसे बड़ी जीत इसी बात में है.....!!!!!

इतना कह सकता हूँ कि ज़िन्दगी से बराबर मुकाबले के लिये बचपन में साइकिल से गिरना बहुत ज़रूरी है ताकि पता हो उठना कैसे है.....और साइकिल सी इस ज़िन्दगी में पैडल फिर से मारते हुये आगे कैसे बढ़ना है.....!!!!!

~ सौरभ शुक्ला

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